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    Home»Breaking News»राहुल की सरकार करे तो पुण्य, मोदी सरकार करे तो पाप क्यों?
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    राहुल की सरकार करे तो पुण्य, मोदी सरकार करे तो पाप क्यों?

    अंकित कुमारBy अंकित कुमारNovember 29, 2025No Comments8 Mins Read
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    Editorial Aaj Samaaj
    Editorial Aaj Samaaj: राहुल की सरकार करे तो पुण्य, मोदी सरकार करे तो पाप क्यों?

    Editorial Aaj Samaaj | आलोक मेहता | राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी भारतीय नागरिकता की पहचान कर मतदाता सूची बनाए जाने के मोदी सरकार के कदम का विरोध कर रही है, लेकिन उनको और जनता को यह क्यों नहीं याद दिलाया जाता कि जब 2008-2009 में राहुल बाबा की सरकार थी, तब नागरिकता पहचान पत्र की योजना का कार्यान्वयन मिस्टर चिदंबरम ने शुरु कर दिया था।

    अलोक मेहता, संपादकीय निदेशक, द भारत ख़बर-इंडिया न्यूज।

    गृह मंत्री के नाते चिदंबरम ने अवैध बांग्लादेशियों की घुसपैठ रोकने और भारत की सुरक्षा के लिए इसके लिए करोड़ों रुपयों का बजट स्वीकृत करवाकर कई राज्यों में नागरिकता के स्मार्ट कार्ड के लिए बाकायदा फार्म भरवाकर सूचियां बनवानी तक शुरु करवा दी थी। मेरे जैसे पत्रकार सहित देश के लाखों लोगों ने सम्बंधित सरकारी केंद्रों पर फोटो खिंचवाकर पहचान की तकनीकी औपचारिकता पूरी की थी।

    लेकिन कुछ महीनों बाद पता चला कि गांधी परिवार और प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने न जाने किस दबाव में इस योजना को रुकवा दिया। फिर यह बताया गया कि आधार कार्ड की योजना को ही प्राथमिकता दी जाए। यही नहीं करोड़ों की संख्या में स्मार्ट कार्ड्स बनवाने के लिए निजी कंपनियों को ठेके देने में घोटाले के आरोप सामने आए थे। इसीलिए सवाल उठ रहा है कि राहुल कांग्रेस की सरकार नागरिकता पहचान करे तो पुण्य और मोदी सरकार करे तो पाप क्यों?

    भारतीय राजनीति में पहचान, नागरिकता और मतदाता सत्यापन जैसे विषय हमेशा से संवेदनशील रहे हैं। लेकिन पिछले डेढ़ दशक में इन मुद्दों पर कांग्रेस पार्टी के भीतर ही जो वैचारिक और राजनीतिक परिवर्तन दिखाई देता है, वह अत्यंत विवादास्पद है। एक समय था जब कांग्रेस सरकार में गृह मंत्री पी चिदंबरम  स्वयं राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) जैसी कठोर पहचान परियोजना के प्रमुख सूत्रधार थे। 2008–2012 का कालखंड भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए चुनौतीपूर्ण था।

    एक ओर 26/11 जैसे आतंकी हमले, दूसरी ओर पूर्वोत्तर और सीमावर्ती इलाकों में अवैध बांग्लादेशी घुसपैठ और तीसरी ओर फर्जी दस्तावेजों से जुड़ा संगठित अपराध। इसी पृष्ठभूमि में गृह मंत्री के रूप में पी चिदंबरम ने कहा था कि भारत को एक मज़बूत नागरिक पहचान प्रणाली चाहिए, जो केवल निवास नहीं, बल्कि नागरिकता को भी दर्ज करे। इसी सोच से नेशनल पापुलेशन रजिस्टर को मंत्रिमंडल से योजना और बजट की स्वीकृति मिली।

    उस समय सरकार ने इस योजना के लिए प्रत्येक व्यक्ति का घर-घर जाकर सत्यापन,  निवासी और संभावित नागरिक के बीच प्राथमिक अंतर,  आंतरिक सुरक्षा एजेंसियों के लिए एक राष्ट्रीय डेटाबेस और अवैध प्रवास की पहचान का प्रारम्भिक ढांचा आवश्यक माना था। तब कांग्रेस का तर्क था कि राष्ट्रीय सुरक्षा और नागरिक पहचान पर राजनीतिक संवेदनशीलता नहीं, बल्कि प्रशासनिक साहस दिखाना होगा।

    2009-10 के दौरान एनपीआर और स्मार्ट कार्ड परियोजना के लिए प्रारम्भिक बजटीय प्रावधान 3,700 करोड़ रुपए से अधिक बाद में संशोधित अनुमान 6,000 करोड़ रुपए तक का प्रावधान रखा गया। यह राशि सर्वे एजेंसियों को भुगतान, बायोमेट्रिक उपकरण, स्मार्ट कार्ड निर्माण, केन्द्रीय सर्वर अवसंरचना और राज्य सरकारों को अनुदान मदों पर व्यय होनी थी। तभी प्रकट हुआ आधार। दो पहचान प्रणालियों का टकराव। 2009 में भारत सरकार ने समानांतर रूप से यूआईडीएआई की स्थापना कर दी और आधार परियोजना शुरू कर दी।

    चिदंबरम के कार्यकाल में एनपीआर को एक सुरक्षा प्रधान परियोजना के रूप में देखा गया। यह केवल जनगणना जैसी योजना नहीं थी। इसका आधार यह था कि बिना सत्यापित पहचान के आतंकवाद और अपराध से लड़ना मुश्किल है। अवैध प्रवासी मतदाता सूची और राशन प्रणाली दोनों को प्रभावित कर रहे हैं। उस समय सरकार ने यह दावा किया था कि एनपीआर किसी समुदाय के खिलाफ नहीं है, यह केवल प्रशासनिक शुद्धिकरण है, इससे असली नागरिकों को लाभ और फर्जी पहचान को नुकसान होगा। उसी दौर में कांग्रेस सरकार ने योजना आयोग के माध्यम से आधार पहचान पत्र को भी आगे बढ़ाया। यहीं से पार्टी के भीतर ही दोहरी नीति से टकराव होने लगा और चिदंबरम की योजना को रुकवा दिया गया।

    कई राज्यों में एनपीआर का केवल आंशिक क्रियान्वयन हुआ। स्मार्ट कार्ड कभी राष्ट्रव्यापी स्तर पर जारी ही नहीं हो पाए। करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद मूल उद्देश्य नागरिकता सत्यापन पूरा नहीं हो सका। स्मार्ट कार्ड के ठेकों में गड़बड़ी के गंभीर आरोप लगे। डेटा संग्रह के लिए निजी कंपनियों को बड़े पैमाने पर ठेके दिए गए।

    कुछ एजेंसियों पर मानक पूरे न करने और ग़लत डेटा अपलोड के आरोप लगे। कई स्थानों पर दोबारा सर्वे कराना पड़ा, जिससे दोहरा खर्च हुआ। एनपीआर और आधार दोनों में एक ही व्यक्ति का बायोमेट्रिक डेटा दो बार लिया गया। इससे उपकरणों की दोहरी खरीद, मानव संसाधन पर दोहरा खर्च, हज़ारों करोड़ का अनुत्पादक अपव्यय हुआ। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक कैग ने अपनी रिपोर्टों में कहा कि परियोजनाओं के बीच समन्वय का अभाव, लागत-लाभ विश्लेषण अधूरा, नीति स्पष्ट न होने से सार्वजनिक धन का प्रभावी उपयोग नहीं हुआ। 2009 में आधार पहचान पत्र का काम  शुरू हुआ। यह विश्व की सबसे बड़ी बायोमेट्रिक पहचान परियोजना बनी।

    आधार पर अब तक (लगभग 2010–2024 के बीच) अनुमानत 14,000 से 16,000 करोड़ रूपये से अधिक का सार्वजनिक धन खर्च हो चुका है। फिर आधार पहचान पत्र में दुरुपयोग और अनियमितताओं के आरोप सामने आए। फर्जी नामांकन और डुप्लीकेट आधार शुरुआती वर्षों में कई स्थानों पर, एक व्यक्ति के दो-दो आधार, फर्जी बायोमेट्रिक, दलालों द्वारा अवैध नामांकन बाद में लाखों आधार संख्या रद्द की गई। समय-समय पर मीडिया में आरोप लगे कि कुछ राज्यों की वेबसाइटों से आधार डेटा लीक हुआ, निजी एजेंसियों द्वारा आधार विवरण का व्यापार किया गया। हालांकि सरकार ने कहा कि कोर बायोमेट्रिक डेटा सुरक्षित है।

    आधार की अनिवार्यता पर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। न्यायालय ने कहा कि आधार नागरिकता का प्रमाण नहीं, निजी सेवाओं में अनिवार्य करना असंवैधानिक और केवल सीमित सरकारी योजनाओं में वैध उपयोग इससे स्पष्ट हो गया कि आधार कल्याण वितरण का उपकरण है, राष्ट्रीय नागरिकता पहचान नहीं। जहां तक चुनाव आयोग का मामला है, इसका वार्षिक बजट आम तौर पर 1,000-2,000 करोड़ रुपए के बीच रहता है। इसमें शामिल होते हैं वोटर कार्ड छपाई, डिजिटल वोटर डेटाबेस, बूथ लेवल ऑफिसर्स नेटवर्क, मतदाता सूची संशोधन अभियान और साइबर सुरक्षा।

    हर बड़े चुनाव (लोकसभा/ विधानसभा) से पहले विशेष पुनरीक्षण का काम होना चाहिए। 2014 में सत्ता परिवर्तन के बाद कांग्रेस विपक्ष में आ गई। यहीं से कांग्रेस के लिए पहचान सत्यापन जैसे विषय सुरक्षा प्रश्न से अधिक सामाजिक-राजनीतिक जोखिम बन गए। यहां यह स्पष्ट दिखने लगा कि जिस एनपीआर को चिदंबरम ने एक समय सुरक्षा ढाल माना था, वही कांग्रेस के नए नेतृत्व के लिए मानवाधिकार और लोकतांत्रिक चिंता का विषय बन गया। अब चुनाव आयोग द्वारा लागू की जा रही मतदाता सूची शुद्धिकरण प्रक्रिया को लेकर राहुल गांधी और विपक्ष ने कड़ा विरोध दर्ज किया है।

    उनका कहना है कि यह प्रक्रिया गरीब, प्रवासी और अल्पसंख्यक मतदाताओं के नाम काटने का माध्यम बन सकती है, इससे चुनावों की निष्पक्षता प्रभावित होगी, यह सत्तारूढ़ दल के पक्ष में वोटर सूची को री-इंजीनियर करने का प्रयास हो सकता है। राहुल गांधी का तर्क यह है कि मतदाता सत्यापन के नाम पर लोकतंत्रीय अधिकारों से छेड़छाड़ की जा रही है। चिदंबरम के गृह मंत्री काल में एनपीआर को प्रशासनिक सुधार और सुरक्षा का उपाय माना गया। आज वही चिदंबरम कहते हैं कि ऐसी कोई भी सूची, जो नागरिकता या मताधिकार को चुनौती देती है, उसे अत्यंत सीमित, पारदर्शी और न्यायिक रूप से नियंत्रित होना चाहिए। अवैध बांग्लादेशी शब्द के प्रयोग पर भी चिदंबरम की आपत्ति है। उनका कहना है कि अवैध प्रवासी की पहचान सरकार का दायित्व है, लेकिन नागरिक को बार-बार अपनी वैधता सिद्ध करने के लिए खड़ा कर देना लोकतांत्रिक राज्य की परिभाषा के विरुद्ध है।

    एनपीआर यदि पूरी शक्ति के साथ लागू होता तो अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों की वास्तविक पहचान संभव होती, फर्जी वोटर सूचियाँ समाप्त होतीं, एनआरसी प्रक्रिया सरल हो चुकी होती। परंतु राजनीतिक संवेदनशीलता और राज्य सरकारों के विरोध के चलते एनपीआर को केवल एक सांख्यिकीय रजिस्टर बनाकर छोड़ दिया गया। नागरिकता जैसे प्रश्नों को स्वैच्छिक कर दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि अवैध प्रवास पर प्रभावी नियंत्रण नहीं हो पाया और आधार जैसा पहचान पत्र नागरिकता का प्रमाण बने बिना ही देश की मुख्य पहचान प्रणाली बन गया।

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने अब चुनाव आयोग को सही नागरिकता के साथ मतदाता सूची के शुद्धिकरण के लिए स्वीकृति दे दी। मतदाता पहचान पत्र सीधे-सीधे लोकतंत्र की जड़ों से जुड़ा हुआ है। यदि मतदाता सूची ही संदिग्ध हो जाए तो चुनाव की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। मतदाता सूचियों में लंबे समय से फर्जी नाम , एक व्यक्ति के कई वोटर कार्ड, मृत व्यक्तियों के नाम, अवैध प्रवासियों के नाम, बार-बार स्थानांतरण के बाद भी नाम न कटना समस्याएं रही हैं। इसी पृष्ठभूमि में चुनाव आयोग समय-समय पर मतदाता सूची शुद्धिकरण और अब मतदाता सूची शुद्धिकरण जैसी प्रक्रियाएं लागू करता है, ताकि मतदाता सूची को शुद्ध किया जा सके।

    इसका उद्देश्य यह होता है कि प्रत्येक मतदाता का पुनः सत्यापन किया जाए, गलत प्रविष्टियों को हटाया जाए, दोहरे नामों को समाप्त किया जाए, स्थान परिवर्तन के अनुसार नई प्रविष्टियां की जाएं। यह एक नियमित प्रशासनिक प्रक्रिया है, जिसे चुनाव आयोग स्वतंत्र रूप से समय-समय पर करता रहा है। यही प्रक्रिया वर्तमान में कुछ राज्यों में विशेष रूप से लागू की जा रही है, ताकि आगामी चुनावों से पहले मतदाता सूची को अधिक विश्वसनीय बनाया जा सके। बहरहाल, दीर्घकालिक समाधान यही है कि भारत को अंततः एक स्पष्ट, वैधानिक और सर्वमान्य नागरिकता आधारित राष्ट्रीय पहचान प्रणाली बनानी ही होगी, ताकि बार-बार मतदाता सत्यापन जैसे विवाद खड़े न हों। (लेखक द भारत ख़बर-इंडिया न्यूज के संपादकीय निदेशक हैं।) 

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