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    उत्तर भारत के लिए नीति मॉडल बनकर उभरा हरियाणा

    अंकित कुमारBy अंकित कुमारNovember 30, 2025No Comments5 Mins Read
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    Editorial Aaj Samaaj : उत्तर भारत के लिए नीति मॉडल बनकर उभरा हरियाणा
    Editorial Aaj Samaaj : उत्तर भारत के लिए नीति मॉडल बनकर उभरा हरियाणा

    • पराली पर निर्णायक प्रहार 

    Editorial Aaj Samaaj : कार्तिकेय शर्मा, सांसद, राज्यसभा, नई दिल्ली| उत्तरी भारत में हर साल फसल कटाई के बाद हवा जहरीली हो जाती है, शहर धुंध से भर जाते हैं और वही पुराना सवाल उठता है—हम इस समस्या से कब मुक्त होंगे? वैज्ञानिक जगत यह बात वर्षों से कह रहा है कि पराली जलाना न तो अनिवार्य है, न ही इसका कोई कृषि लाभ है। यह मिट्टी, हवा, पानी और लोगों के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाली पूरी तरह टाली जा सकने वाली प्रक्रिया है। असली अंतर वहां आता है जहां नीतियों को गंभीरता और प्रशासन को निरंतरता मिलती है। इस कसौटी पर आज हरियाणा पूरे उत्तर भारत में एक अलग पहचान बनाकर खड़ा है।

    कार्तिकेय शर्मा, सांसद, राज्यसभा
    कार्तिकेय शर्मा, सांसद, राज्यसभा

    समस्या की जड़ केवल किसानों के व्यवहार में नहीं, बल्कि उन विकल्पों की अनुपलब्धता में थी जिन पर किसान आसानी से और भरोसे के साथ चल सकें। हरियाणा ने इसी बिंदु को पकड़कर सबसे पहले किसानों के लिए टिकाऊ विकल्पों को सुलभ बनाया। राज्य ने 2018 के बाद जिस बड़े पैमाने पर पराली प्रबंधन मशीनरी को गांव-गांव पहुंचाया, वह अपने आप में एक संस्थागत सुधार था। 6,700 से अधिक कस्टम हायरिंग सेंटर और 80,000 से अधिक आधुनिक मशीनें—हैप्पी सीडर से लेकर सुपर सीडर तक—किसानों के हाथ में पहुंचीं।

    इससे दो बदलाव आए : टिकाऊ खेती सस्ती हुई और समय पर खेत साफ करने की समस्या लगभग समाप्त हो गई। धान और गेहूं के बीच बेहद कम खिड़की में खेती करने वाले राज्यों के लिए यह सबसे बड़ा संरचनात्मक सुधार था। लेकिन केवल मशीनें पर्याप्त नहीं थीं। व्यवहार बदलने के लिए आर्थिक संकेत उतने ही आवश्यक थे।

    ग्रामीण अर्थव्यवस्था में छोटे-छोटे प्रोत्साहन बड़े निर्णयों को प्रभावित करते हैं। हरियाणा ने इसे समझते हुए किसानों के लिए स्पष्ट वित्तीय संरचना बनाई—पराली को खेत में दबाने या प्रोसेसिंग चैनलों को देने पर प्रत्यक्ष सहायता, पानी बचाने वाली फसलों की ओर रुख करने पर अतिरिक्त प्रोत्साहन, और डायरेक्ट सीडिंग पर अलग सब्सिडी। इससे टिकाऊ विकल्प महँगे नहीं, बल्कि लाभकारी लगने लगे। यही वह मोड़ था जहाँ पराली प्रबंधन केवल ‘पर्यावरणीय दायित्व’ नहीं, बल्कि ‘आर्थिक रूप से समझदार’ निर्णय बन गया।

    हरियाणा का तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कदम था—गंभीर प्रवर्तन और तकनीक आधारित निगरानी। ऌअफरअउ की सैटेलाइट प्रणाली, वास्तविक-समय निगरानी, जिला-स्तरीय नियंत्रण कक्ष और उअदट द्वारा अनिवार्य की गई ‘पराली सुरक्षा बल’—इन सबने मिलकर यह सुनिश्चित किया कि कोई भी आग की घटना बिना त्वरित कार्रवाई के नहीं रह जाए।

    यह प्रशासनिक अनुशासन पंजाब जैसे राज्यों में स्पष्ट रूप से अनुपस्थित दिखाई देता है, जहां कार्रवाई अक्सर तब शुरू होती है जब नुकसान हो चुका होता है। सुधार की इस शृंखला का चौथा स्तंभ वह औद्योगिक ढांचा है जिसने पराली को कूड़ा नहीं, बल्कि संसाधन बना दिया। आज हरियाणा में 30 से अधिक पैलेट-ब्रिकेट इकाइयां हैं, 11 बायोमास पावर प्लांट काम कर रहे हैं, और पराली एथनॉल व बायोगैस बनाने वाली इकाइयों में भी उपयोग हो रही है।

    जब किसान को यह दिखने लगे कि पराली का मूल्य है, तो उसे जलाना व्यर्थ और गैर-लाभकारी निर्णय बन जाता है। नीतिगत निरंतरता और प्रशासनिक गंभीरता का परिणाम आंकड़ों में स्पष्ट दिखाई देता है। 2024 में जहां राज्य में 888 पराली जलाने की घटनाएँ हुई थीं, वहीं 2025 में यह संख्या घटकर केवल 171 रह गई। 5 वर्षों में पराली जलाने की घटनाओं में लगभग 97% की गिरावट—यह कोई साधारण उपलब्धि नहीं है।

    कैथल, करनाल और फरीदाबाद जैसे जिलों ने दिखाया कि जिला-स्तरीय नेतृत्व और स्थानीय टीमों की समन्वित कार्रवाई खेतों से उठते धुएं को इतिहास बना सकती है। कैथल की सफलता इस बात का प्रमाण है कि जब मशीनरी समय पर मिलती है, निगरानी प्रणाली तुरंत सक्रिय होती है और किसान को विकल्प उपलब्ध होते हैं, तो पराली जलाने जैसी पुरानी आदतें भी बदल जाती हैं।

    इस मॉडल की सफलता के केंद्र में राज्य नेतृत्व का स्पष्ट दृष्टिकोण है। मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल ने पराली प्रबंधन को केवल ‘मौसमी मुद्दा’ नहीं समझा, बल्कि इसे दीर्घकालिक शासन सुधार के रूप में देखा। यह वही दृष्टिकोण है जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार रेखांकित करते रहे हैं—सतत विकास, प्रशासनिक अनुशासन और किसान-केंद्रित नीतियाँ। हरियाणा ने इस राष्ट्रीय दृष्टि को जमीन पर उतारकर दिखाया है।

    दूसरी ओर, पंजाब की स्थिति यह बताती है कि जब नीति में गंभीरता और क्रियान्वयन में निरंतरता नहीं होती, तो समस्या चाहे कितनी भी पुरानी हो, बढ़ती ही जाती है। पंजाब की कृषि परंपरा गौरवशाली है, किसान परिश्रमी हैं, परंतु मशीनरी वितरण में देरी, प्रोत्साहनों का असंगत उपयोग और ढीला प्रवर्तन समाधान को असंभव बना देता है। यह किसानों की नहीं, उस प्रशासनिक ढांचे की विफलता है जो उन्हें समय पर विकल्प देने में असमर्थ रहा।

    इस पूरे अनुभव से एक व्यापक सबक निकलता है—पर्यावरणीय चुनौतियां केवल जागरूकता से नहीं सुलझतीं। उन्हें व्यवहार बदलने वाली संरचनाएँ चाहिए; ऐसी संरचनाएँ जो टिकाऊ विकल्प को आसान, उपलब्ध और लाभकारी बनाएं। हरियाणा ने यह कर दिखाया है कि सही प्रोत्साहनों, सशक्त प्रशासन और तकनीक आधारित निगरानी के साथ कोई भी राज्य पराली जलाने जैसी गहरी जड़ें जमाए समस्या पर निर्णायक प्रहार कर सकता है।

    उत्तर भारत के लिए यही सबसे बड़ा मार्गदर्शन है। हमारी हवा, हमारी मिट्टी और आने वाली पीढ़ियों का स्वास्थ्य तभी सुरक्षित होगा जब नीतियां मौसमी प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि दीर्घकालिक नियोजन का रूप लें। हरियाणा का मॉडल यही संदेश देता है—समाधान वहीं संभव है जहाँ शासन में स्पष्टता हो, प्रशासन में निरंतरता हो और किसान को सम्मानजनक विकल्प मिले। यह केवल एक राज्य की उपलब्धि नहीं, बल्कि पूरे क्षेत्र के लिए प्रेरक रोडमैप है।
    (लेखक राज्यसभा सांसद हैं।)

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