दिल्ली ब्यूरो : दिल्ली के पुलिस थानों में एक शब्द गूंजता है—‘फटीक का पैसा’। यह कोई आधिकारिक शुल्क नहीं, बल्कि रिश्वत और अवैध वसूली का वह देसी नाम है, जो आम आदमी की जेब पर डाका डाल रहा है और हर तरफ अव्यवस्था का जंजाल फैला हुआ है। चाहे FIR दर्ज करवानी हो, छोटा-मोटा मामला सुलझाना हो, या थाने में बुलाए गए व्यक्ति को छुड़ाना हो, कोई रेहड़ी-पट़ड़ी या दुकान लगानी हो, कोई अवैध काम करना हो, कुछ पुलिसकर्मी बेशर्मी से “फटीक” की मांग करते हैं। मालवीय नगर, फतेहपुर बेरी, शाहदरा, और नजफगढ़ जैसे इलाकों में यह प्रथा इतनी आम हो चुकी है कि लोग इसे थाने की “रस्म” मानने लगे हैं। लेकिन सवाल यह है कि आखिर यह फटीक का पैसा है क्या, और क्यों पुलिस महकमा इस भ्रष्टाचार पर आंखें मूंदे बैठा है? यह खबर इस गंदी प्रथा को उजागर करती है और समाज से जवाब मांगती है।
फटीक का पैसा: रिश्वत का स्थानीय चेहरा
“फटीक का पैसा” एक ऐसा अनौपचारिक शब्द है, जिसका इस्तेमाल पुलिस थानों में रिश्वत या अवैध भुगतान के लिए किया जाता है। यह शब्द संभवतः स्थानीय बोली से निकला है, जहां “फट” या “फटीक” का मतलब त्वरित या छोटा भुगतान हो सकता है। यह राशि आमतौर पर 500 रुपये से लेकर हजारों रुपये तक हो सकती है, जो मामले की गंभीरता और थाने के “रेट कार्ड” पर निर्भर करता है। दिल्ली के फतेहपुर बेरी थाने के आसपास के निवासी रमेश गुर्जर ने तल्खी से कहा, “FIR लिखवाने गए थे, लेकिन हवलदार ने कहा—‘फटीक नहीं दोगे, तो केस आगे नहीं बढ़ेगा।’ 2,000 रुपये देने पड़े, तब जाकर FIR दर्ज हुई।”
यह पैसा कई रूपों में लिया जाता है:
FIR दर्ज करने के लिए: कई थानों में शिकायत दर्ज करने के लिए पहले “फटीक” देना पड़ता है, खासकर अगर मामला छोटा हो।
आरोपियों को छोड़ने के लिए: छोटे-मोटे मामलों में पकड़े गए लोगों को बिना औपचारिक कार्रवाई के छोड़ने के लिए पुलिसकर्मी पैसे वसूलते हैं।
जांच में ढील देने के लिए: कुछ मामलों में, जांच को धीमा करने या पक्षपात करने के लिए भी यह राशि ली जाती है।
थाने में बुलाए गए लोगों के लिए: अगर किसी को पूछताछ के लिए बुलाया जाता है, तो उसे छुड़ाने के लिए “फटीक” मांगा जाता है।
दिल्ली में फटीक की प्रथा: एक खुला राज
दिल्ली के थानों, जैसे फतेहपुर बेरी, नजफगढ़, शाहदरा, और यहां तक कि साउथ दिल्ली के पॉश इलाकों के थानों में यह प्रथा कोई छिपा राज नहीं है। स्थानीय दुकानदारों, रेहड़ी-पटरी वालों, और छोटे व्यवसायियों से नियमित रूप से “हफ्ता” या “फटीक” वसूला जाता है, ताकि उनके कारोबार को पुलिस परेशान न करे। फतेहपुर बेरी के एक चाय विक्रेता, अजय, ने बताया, “हर महीने 500-1,000 रुपये देने पड़ते हैं। नहीं देंगे, तो थाने बुलाकर परेशान करते हैं।”
यह प्रथा सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, और राजस्थान के ग्रामीण और शहरी थानों में भी “फटीक” या इसी तरह के अन्य नामों (जैसे “खुराक” या “चाय-पानी”) से पैसे वसूले जाते हैं। नवभारत टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस दस्तावेजों में पुराने उर्दू-फारसी शब्दों जैसे “जरे खुराक” (खाने का पैसा) का इस्तेमाल भी अनौपचारिक भुगतानों को दर्शाने के लिए होता था, जो अब “फटीक” जैसे शब्दों में बदल गया है।
भ्रष्टाचार का गहरा जाल: समाज और प्रशासन की नाकामी
फटीक का पैसा लेना भ्रष्टाचार का स्पष्ट उदाहरण है, जो पुलिस महकमे की विश्वसनीयता को खंडित करता है। दिल्ली पुलिस, जो कानून और व्यवस्था की रक्षा के लिए जिम्मेदार है, इस प्रथा के सामने चुप क्यों है? सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में प्रकाश सिंह मामले में पुलिस सुधारों और स्वतंत्र पुलिस शिकायत प्राधिकरण (Police Complaints Authority) के गठन का निर्देश दिया था, ताकि पुलिस की जवाबदेही सुनिश्चित हो। लेकिन 2025 तक दिल्ली में यह प्राधिकरण प्रभावी ढंग से काम नहीं कर रहा।
स्थानीय निवासियों का कहना है कि फटीक की प्रथा सिर्फ निचले स्तर के पुलिसकर्मियों तक सीमित नहीं। कुछ मामलों में, थाना प्रभारी (SHO) और उच्च अधिकारियों तक यह राशि पहुंचती है। एक गुमनाम पुलिसकर्मी ने बताया, “यह एक सिस्टम है। ऊपर से नीचे तक हिस्सा बंटता है। अगर फटीक नहीं लिया, तो ट्रांसफर या सजा का डर रहता है।” यह भ्रष्टाचार का ऐसा जाल है, जो आम आदमी को थाने में न्याय मांगने से पहले दो बार सोचने को मजबूर करता है।
सामाजिक और आर्थिक प्रभाव
फटीक का पैसा सिर्फ आर्थिक बोझ नहीं, बल्कि सामाजिक अन्याय का प्रतीक है। गरीब और मध्यम वर्ग के लोग, जो पहले से ही आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं, इस वसूली का सबसे ज्यादा शिकार बनते हैं। फतेहपुर बेरी की एक गृहिणी, रीता देवी, ने कहा, “मेरे बेटे को एक छोटी लड़ाई के लिए थाने ले गए। 5,000 रुपये देने पड़े, तब जाकर छोड़ा। हमारे जैसे लोग कहां से इतना पैसा लाएं?” यह प्रथा पुलिस पर जनता का भरोसा तोड़ रही है और कानून व्यवस्था को कमजोर कर रही है।
इसके अलावा, यह छोटे व्यवसायियों और रेहड़ी-पटरी वालों के लिए एक नियमित उत्पीड़न का साधन बन गया है। चैंबर ऑफ ट्रेड एंड इंडस्ट्री (CTI) के एक सदस्य ने बताया, “दिल्ली में रेहड़ी वालों से हर महीने हजारों रुपये फटीक के नाम पर वसूले जाते हैं। यह एक संगठित लूट है।”
क्या है समाधान?
फटीक जैसे भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए तत्काल और सख्त कदम उठाने की जरूरत है:
पुलिस सुधार: सुप्रीम कोर्ट के 2006 के निर्देशों को लागू कर स्वतंत्र पुलिस शिकायत प्राधिकरण को प्रभावी बनाया जाए।
डिजिटल पारदर्शिता: FIR और शिकायत प्रक्रिया को पूरी तरह ऑनलाइन और पारदर्शी बनाया जाए, ताकि अनौपचारिक भुगतान की गुंजाइश न रहे।
सख्त सजा: रिश्वत लेने वाले पुलिसकर्मियों पर तत्काल निलंबन और कानूनी कार्रवाई हो। दिल्ली पुलिस के आंतरिक सतर्कता विभाग को और सक्रिय करना होगा।
जागरूकता: जनता को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक किया जाए, ताकि वे फटीक की मांग का विरोध कर सकें।
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इस गंदी प्रथा का अंत कब?
फटीक का पैसा दिल्ली के पुलिस थानों में एक खुला राज है, जो आम आदमी की जेब और पुलिस की साख पर डAKA डाल रहा है। फतेहपुर बेरी से लेकर नजफगढ़ तक, यह प्रथा कानून व्यवस्था को मजाक बना रही है। जब तक पुलिस महकमा और सरकार इस भ्रष्टाचार पर सख्ती नहीं दिखाएंगे, तब तक जनता थानों में “फटीक” की मार झेलने को मजबूर रहेगी। यह समय है कि समाज और प्रशासन इस गंदी प्रथा को जड़ से उखाड़ फेंके। क्या दिल्ली पुलिस अपने कर्तव्य को निभाएगी, या फटीक का यह खेल यूं ही चलता रहेगा?